असीमित प्राकृतिक सौन्दर्य,विविध लोकसंस्कृति और विरासतों के लिए प्रसिद्व उत्तराखंड में देश और दुनिया मे प्रसिद्व है। बात अगर यहां के लोककला और कलाकरो की,की जाय तो अनेको कलाकारों ने अपना सम्पूर्ण जीवन को समर्पित कर हमारी विरासतों व लोककलाओं को प्रचारित प्रसारित कर जिन्दा रखने का काम किया है। लेकिन इन कलाकारों में कई कलाकार बहुमुखी प्रतिभा के धनी रहे है जिनमें चन्द्र सिंह राही का नाम सबसे उपर आता है।
अपने गुरू पिता से विरासत में मिली लोकसंगीत व गायन में चन्द्र िंसंह राही का बचपन से ही शौक था।1967 में पहली बार आकाशवाणी में गायन के बाद 40साल से अधिक गायन,वादन व शोध संकलन में गुजरा। जिसमें 2500 से अधिक लोकगीतों संकलन भी राही जी ने किया।चन्द्र सिंह राही के साथी रहे प्रसिद्व लोककलाकार मणि भारती कहते है। राही जी एसे सकसियत थे जिनका कोई मुकाबला नहीं उन्होने अपनी पूरी जिन्दगी पहाड़ी कर संस्कृति के लिए सर्मपित की है।
चन्द्र सिंह राही न सिर्फ गायन क्षेत्र में प्रसिद्व थे बल्कि उनका लुप्त होते वाध्ययंत्रों को वह अपने गीतों में समावेस किया करते थे हुड़की,डमरू,सहनाई,सीधी वांसुरी उनके प्रिय वाध्ययंत्र थें। राही जी को करीब से जानने वाले वरिष्ठ पत्रकार डॉक्टर योगम्बर सिंह बर्तवाल का कहना है कि राही जी जन्मजात कलाकार थे,वो कही भी जाते थे तो उनकी हुड़की और ढपली उनके साथ होती थी। और कही भी गीत गाना शुरूकर देते थे।
लोकगायक चन्द्र सिंह राही की खास बात यह थी कि वह जनमानस के जवलन्त और समसामयिकी विषयों पर लोकगीतों लिखते व गाते थें,गीतों को गाने के लिए उन्हें कोई स्पेसल मंच की आवश्यकता नहीं होती थी। वह बस अड्डा हो या रेलवे स्टेसन अपनी ढपली और हुडके से ही ताले मिलाकर गाया करते थे। राही जी को गुरू मानने वाली और उनके कई गीतों को गानी वाली प्रसिद्व लोकगायिका रेखा धस्माना का कहना है, राही जी अब हमारी यादों में रहते है।वह हमारे लोकसंस्कृति की धरोहर है।उनको जो भी अच्छे कलाकार लगते हैं वह उनको हमेसा आगे करते थे।
भले ही राही जी आज इस दुनियां में न हो लेकिन उनके गीत आज भी लोगो के मन मस्तिष्क में ऐसे छाये है,जैसे की चंद समय की बात हो। राही जी उन विरले लोक कलाकारो ंमें से एक थे गायन वादन और लेखन का कार्य स्यंम ही करते थे।अब जरूरत इस बात की है कि चन्द्र सिंह राही के गीतों का संरक्षण व उनकी धरोहर को नई पीड़ी तक पहुचाने का ईमानदारी से कार्य किया जाय।