पलायन को मजबूर “दिवोली” के ग्रामीणों के लिए कौन बनेगा मसीहा ?

 

कहीं मेरा गांव “दिवोली” भी तो नहीं बन जायेगा घोस्ट विलेज?
इस बार गांव गया तो कुछ और घरों में लटके मिले ताले
पलायन को मजबूर “दिवोली” के ग्रामीणों के लिए कौन बनेगा मसीहा ?

प्रभाकर ढौंडियाल, समाजसेवी

थैलीसैंण। उत्तराखंड में पलायन के कारण भुतहा गांवों (घोस्ट विलेज, यानी वीरान हो चुके गांव) की संख्या बढ़कर अब 1668 पहुंच गई है। उत्तराखंड से प्रकाशित राष्ट्रीय समाचार दैनिक जागरण में ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग की रिपोर्ट के जरिए बताया गया है कि पिछले सात सालों में उत्तराखंड के 700 गांव वीरान हो गए। इससे पहले वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में भुतहा गांवों की संख्या 968 थी। यही नहीं, रिपोर्ट में यह भी जिक्र है कि राज्य के पांच पहाड़ी जिलों रुद्रप्रयाग, टिहरी, पौड़ी, पिथौरागढ़ व अल्मोड़ा में पलायन की चिंताजनक तस्वीर उभरकर सामने आई है। यहां के गांवों में पलायन राज्य औसत से कहीं अधिक है। सुकून इस बात का है कि पहाड़ के गांवों से 70 फीसद लोगों का पलायन राज्य में ही हुआ है, जबकि 29 फीसद ने राज्य से बाहर और एक फीसद ने विदेश में पलायन किया है।

 

पलायन को मजबूर “दिवोली” के ग्रामीणों के लिए कौन बनेगा मसीहा ?
पलायन आज पर्वतीय राज्य उत्तराखंड के लिए बड़ा नासूर बन गया है। गांव के गांव बीरान हो रहे हैं, न जाने किसकी नजर लग गई मेरे इस पहाड़ को। मैं थलीसैंण के नजदीक बैंजरों के दिवोली गांव का रहने वाला हूं। में भी शिक्षा और रोजगार की तलाश में पलायन का शिकार हूं, लेकिन हर साल या फिर 6 महीने में एक बार कुछ दिन के लिए अपने गांव जरूर जाता हूं। अपने घर के मकान को आवाद रखने की पूरी कोशिश करता हूं। मैंने अपने छोटे भाई की शादी भी शहरी तड़क भड़क से दूर गांव में की। न सिर्फ रीति रिवाजों और संस्कृति को करीब से जानने और देखने का मौका मिला साथ ही इस मौके पर गांव छोड़कर पलायन कर चुके लोग भी गांव आये और एक दूसरे से मिले। गांव एक बार कुछ दिनों के लिए ही सही पर आबाद सा लगा। इस बात को लगभग तीन साल का वक्त गुजरने को है।

पलायन की बड़ी वजह शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क और रोजगार
हर बार की तरह कुछ दिन पहले एक बार फिर अपने गांव दिवोली जाने का सौभाग्य मिला। पहले के मुकाबले कुछ और घरों पर ताले लगे मिले। पूछने पर पता चला कि कोई पौड़ी, कोई कोटद्वार, कोई श्रषिकेश, कोई देहरादून, तो कोई दिल्ली चला गया है। दरवाजों पर लटके तालों को देखकर मेरा मन बड़ा दुखी होता है। गांव से हो रहे इस पलायन का काराण सिर्फ इतना है कि मेरे सुन्दर से गांव में राजगार के कोई सादन नहीं है। कभी लोगों से भरे पूरे इस गांव में अब बस इक्के दुके लोग ही मिलते हंै। वजह ये साफ है कि हमारे पास स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाएं नहीं है। यदि कोंई पढ़ना चाहता है तो उसे 4 किलोमीटर चलना पढ़ता है। गांव में कोई भी बीमार होता है तो हमें उसे 10 किलो मीटर की दूरी तय कर अस्पताल ले जाना पड़ता है, लेकिन वहां भी डाॅक्टर नहीं है। पलायन की मार झेल रहे उत्तराखड़ के युवाओं को रोजगार की जरूरत है।

पहाड़ का विकास सिर्फ कागजों में हुआ
राज्य में सरकार किसी भी दल की रही हो पहाड़ांे के विकास के नाम पर दावे ओर वादे ही हमेशा होते रहे हैं। धरातल पर देखने को विकास कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं आता? अगर दिखते हैं तो खाली हो रहे गांव। पर्वतीय क्षेत्र की जनता की माने तो राज्य सरकारों ने
विकास के नाम पर सिर्फ पहाड़ों पर रहने वाले लोगो को बेवकूफ बनाने का काम से किया है। आम जनता का मानना है कि यदि सरकारों ने पलायन रोकने के लिए पहाड़ों में मूलभूत समस्याओं को दूर किया होता तो वह पलायन नहीं करते। खुद सरकारी आकड़े इस बात के गवाह हैं कि अब तक पहाड़ों से हजारो लोग पलायन कर चुके हैं।

मौसमी फल-सब्जियां और बागवानी की हैं संभावनाएं
अगर बात में अपने गांव दिवली की करूं तो आज मेरे गांव में पानी के इंतजाम बेहत्तर होते तो लोग वहां पर मटर, अखरोट, तोर की दाल, आलू, टमाटर सहित कई मौसमी सब्जियां उगा सकते हैं। लेकिन हमारे पास कुछ खास इंतजामत ना होने के कारण हमारी कई एक्कड भूमि बंजर पड़ी हुई हैै। यह दास्तान मेरे ही गांव की नहीं है लगभग उत्तराखंड के हर गांव की है। जब तक हम मूलभूत सुविधाओं को दूर करने पर ध्यान नहीं देंगे तब तक हमें सिर्फ खाली होते गांव ही देखने को मिलेंगे। रिवर्स पलायन करने के लिए हमें पहाड़ और पहाड़ी लोगों की जरूरतों को समझना होगा और उसके लिए गांव व ब्लाक व तहसील स्तर पर काम करना होगा। यदि सरकार कोशिश कर पहाड़ के एक गांव का विकास कर उसे माॅडल गांव के रूप में विकसित कर दे तो इस मुहिम में धीरे-धीरे लोग खुद जुड़ना शुरू हो जायेंगे।

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